गंधाळ (पंचमुखी हनुमान सेवा ) मंत्रालयम , आंध्र प्रदेश सोमवार २५ फेब.२०१३ सद्गुरु श्री देवेंद्रनाथ महाराजांचा आदेश


अल्लख !! बहोत प्रसन्न हुं।स्वामीजी और माताजी बहोत प्रसन्न है । स्वामीजीने कहा देवेंद्र तेरे बेटे बहोत अच्छी तरह से साधना कर रहे है ।यही सात जनम का पाप नष्ट करने का मार्ग है ।यहा आप बैठे है और सिध्द धुनी लगाई है । यह एक सिद्ध पीठ है । जनम जनम का पाप नष्ट करणे कि और कोटी यज्ञ का पुण्य प्राप्त करने कि ताकत इस सिद्ध पीठ में है । सिद्धो के सिद्ध पीठ पर जभी होम हवन होता है तभी कोटी यज्ञ का फल प्राप्त होता है ।जभी आदमी अपने प्रारब्ध के अनुसार जीता है , तो कर्म भोग ये उनका धर्म है ।इससे कर्म और उससे धर्म बंता है ।ताकी प्रारब्ध ये किसी को छूटता नही है ,ना आदमी को न सिद्धो को, ना भगवान को भी छूटता नही ।कर्म मे दोष होगा तो ये भगवान को भी प्रायश्चित्त लेन पडता है ।इसलिये कर्म शुद्ध रखो यही सत्य धर्म है ।कर्म अलग नही है ।कर्म के अनुसार धर्म बनता है ।अच्छे कर्म का फल अच्छा मिलेगा,अच्छे धर्म का फल अच्छा मिलेगा ।किसी का दिल नही तोडो ।दिल दिल में प्यार रहने दो । मेरा सभी पे ध्यान है । कभी कभी मे भी दुखी बन जाता हुं क्योकि मेरे हि कुछ बच्चे गलत ढंग से झगडे करते है ।मे क्या करू कोनसा गलत और कोनसा अच्छा ये सब मे जानता हू ।लेकिन मे कुछ कर नाही सकता हुं ताकी मेरा डमरू उन्हें तकलीफ ना दे ।मेरे हाथ का डमरू मेरा नही है,वो आदिनाथ का है ।संयम और शांती डमरू मे जरूर है ।लेकिन जब बजना चालू हो जाये तो उसे रोकने वाला कोई नही है ।ये ख्याल मे रखो । जो चल राहा है उस ढंग से बराबर चल रहा है ।खंदे पर निशाना लिया है वो निशाने के साथ चले वो उभारते ही चलो उंचा करके चलो नीचे नही खिचना, खिचनेवाले मुझे मालूम है ।मेरा ध्यान है मगर वो मेरे हि बच्चे है इसलिये मै चूप बैठा हुं मगर एक दिन ये डमरू हि उन्हे सजा देगा । बस ऐसे हि कुदते खेलते रहो आनंद मे रहो और पुण्य कि डेरी बढेगी । तो फिर जनम लेने कि जरुरत नही मेरे पास आकर बैठोगे । ये मां क्या है तुम्हे क्या मालूम? ये मां अनंत रूप से भरी है ।योगमाया है, ज्ञान का सागर है , धन कि डेरी पडी है और कुबेर उन्हे नमस्कार करते है और धन बांटते है ।ये योगिनी है, ज्ञानी है, महामायाळु है और कभी कभी कालिका भी है ।तो उन्हें समझ के संभाल के चलो इधर डमरू बजता है तभी सभी नाथ निकल जाते है सम्झे ?

ताकी ये आय हूआ डमरू है वो मायावी है इसमे आदिनाथ के साथ आदिशक्ती भी । मगर क्रोध का डमरू नही बजना चाहिये इसलिये मै हमेशा प्रार्थना करता रहुंगा के डमरू मायालू रहे ।

इसलिये अच्छे कर्म के ढंग से चलो और अपना कर्म और प्रारब्ध अच्छा बनालो गुरु के कार्य में रहो ।गुरुकार्य और गुरुसेवा कि लज्जत तुम्हे क्या मालूम? जनम जनम का पाप नष्ट करणे का सामर्थ्य गुरुकार्य और गुरुसेवा मे है ।ऐसे ही डमरू बजाओ और झंडा उंचा से उंचा रखो ।मेरे गुरु भी प्रसन्न है तो मै हि क्या मेरे साथ के दैवत भी हमेशा तुम्हारे साथ मी रहेंगे ये मेरा आशिष है।

अल्लख ....

नाथपंथी द्वैताद्वैत पीठाधीपती श्री खगेंद्रनाथ महाराज यांच्याद्वारे सद्गुरु श्री देवेंद्रनाथ महाराजांनी वरील आदेश दिला. 
(स्त्रोत : आदित्य देशमुख )
 धन्यवाद !

गुरुकृपेने कोणती फलप्राप्ति होते ?

Sadguru Shri Devendranath Maharaj Ki Jay !


गुरुकृपा ही विषासारखी आहे. विष माणसाला आपणासारखे करून टाकते. कृपेने गुरु हे शिष्याला आपणासारखे करून टाकतात.

गुरुकृपेशिवाय आत्मसाक्षात्कार होत नाही. गुरुपदी मन जडले की गुरुकृपा होऊन आत्मसाक्षात्कार होतो.

गुरु कुणाला म्हणतात ? गुरूंचे स्वरूप काय ?

गु म्हणजे गुप्त आणि रु म्हणजे रूप. आत्म्याचे गुप्त रूप साधकाला दाखवणारा, साधकाच्या अनुभवास आत्मरूप आणून देणारा(१) तो गुरु. आत्म्याचे गुप्त अंग जो दाखवितो तो गुरु.

गुरुपद म्हणजे तत्पद. तत्पद म्हणजे स्थूल, सूक्ष्म, कारण व महाकारण या चार देहांच्या पलीकडे असणारे आत्मतत्त्व. तत्पद म्हणजे सत्पद. सत्पद म्हणजेच चित्पद. म्हणून गुरु हे चैतन्यरूप आहेत व त्यांचे पदही चैतन्यरूप आहे. चैतन्य हेच गुरूचे स्वरूप आहे. गुरु हे देहातीत व चैतन्यरूप असतात. निरुपाधिक जीवन हेच त्यांचे खरे स्वरूप. गुरु हा सत्तारूप आहे. गुरु सोहंरूप आहेत. सोहंमधील आकाश म्हणजे चिदाकाश. चिदाकाशात आत्मा तेजोरूपाने आहे; तेच गुरूचे खरे स्वरूप आहे. तेथेच गुरूंचा वास असतो.


Read More